चोल राजवंश, चोल वंश का प्रारम्भिक इतिहास | Chol Vansh Ka Itihas
चोल प्राचीन भारत का एक राजवंश था। दक्षिण भारत और निकटवर्ती अन्य देशों में तमिल चोल शासकों ने 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के बीच एक अत्यंत शक्तिशाली हिंदू साम्राज्य का निर्माण किया।
'चोल' शब्द की व्युत्पत्ति विभिन्न प्रकार से की जाती है। कर्नल रीनो ने चोल शब्द को संस्कृत में "काल" एवं "कोल" से संबद्ध करते हुए इसे दक्षिण भारत के कृष्णवर्ण आर्य समुदाय का सूचक माना है। चोल शब्द से संस्कृत "चोर" तथा तमिल "चोलम" से भी संबद्ध है, इनसे कोई मत ठीक नहीं है। आरंभिक काल से ही चोल शब्द का प्रयोग इसी नाम के राजवंश द्वारा उपयोग किए जाने वाले पेज और भूभाग के लिए व्याहृत हो रहा है। संगमयुगीन मणिमेक्ले में चोलों को सूर्यवंशी कहा जाता है। चोलों के कई प्रतिद्वंद्वियों में शेंबियन भी है। शेंबियन के आधार पर उन्हें शिबि से उद्भूत सिद्ध किया जाता है। 12वीं शताब्दी के अनेक स्थानीय राजवंशों में करिकाल से उद्भट कश्यप गोत्रीय उपदेशक हैं।
चोलों के उल्लेख अत्यंत प्राचीन काल से ही प्राप्त होने लगे हैं। कात्यायन ने चोदों का उल्लेख किया है। अशोक के अभिलेखों में यह भी उपलब्ध बताया गया है। सबसे पहले संगमयुग में दक्षिण भारतीय इतिहास को पहली बार प्रभावित किया गया था। संगमयुग के कई महत्वपूर्ण चोल सम्राटों में करिकाल के महान प्रसिद्ध संगमयुग के चोल का इतिहास अज्ञात है। फिर भी चोल-वंश-परंपरा अक्षुण्ण समाप्त नहीं हुई क्योंकि रेनन्दु (जिला कुदाया) प्रदेश में चोल पल्लवों, चालुक्यों और राष्ट्रकूटों का अधिपत्य शासन कायम था।
चोलों का उदय - चोल वंश का इतिहास
उपर्युक्त दीर्घकालिक प्रभुत्वहीनता के पश्चात् नवीं सदी के मध्य से चोलों का पुनरुत्थन हुआ। इस चोल वंश का संस्थापक विजयालय (850-870-71 ई.) पल्लव अधीनता में उरैयुर प्रदेश का शासक था। विजयालय की वंशपरंपरा में लगभग 20 राजा हुए, जिन्होंने कुल मिलाकर चार सौ से अधिक वर्षों तक शासन किया। विजयालय के पश्चात् आदित्य प्रथम (871-907), परातंक प्रथम (907-955) ने क्रमश: शासन किया। परांतक प्रथम ने पांड्य-सिंहल नरेशों की सम्मिलित शक्ति को, पल्लवों, बाणों, बैडुंबों के अतिरिक्त राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय को भी पराजित किया। चोल शक्ति एवं साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक परांतक ही था। उसने लंकापति उदय (945-53) के समय सिंहल पर भी एक असफल आक्रमण किया। परांतक अपने अंतिम दिनों में राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण तृतीय द्वारा 949 ई. में बड़ी बुरी तरह पराजित हुआ। इस पराजय के फलस्वरूप चोल साम्राज्य की नींव हिल गई। परांतक प्रथम के बाद के 32 वर्षों में अनेक चोल राजाओं ने शासन किया। इनमें गंडरादित्य, अरिंजय और सुंदर चोल या परातक दि्वतीय प्रमुख थे।
इसके संस्थापक राजराज प्रथम (985-1014) ने चोले हुए राजवंश की प्रचार नीति को आगे बढ़ाते हुए अपनी अनेक विजयों को अपने राजवंश की सीमाओं को पुनरुत्पादित किया: प्रतिष्ठित किया। उन्होंने प्रथम पश्चिमी गैंगों को परास्त कर उनके प्रदेश पर कब्ज़ा कर लिया। तदनन्तर पश्चिमी चालुक्यों से उनके समुद्री युद्ध की शुरुआत हुई। इसके विपरीत राजराज को सुदूर दक्षिण में आशातीत सफलता मिली। उन्होंने केरल नरेश को हरा दिया। पांड्यों ने मदुरा और कुर्ग को पराजित कर उद्गई का अधिकार प्राप्त कर लिया। यही नहीं, राजराज ने सिंहल पर आक्रमण करके अपने दूसरे निवेशकों को अपने राज्य में मिला लिया।
राजराज ने पूर्वी चालुक्यों पर आक्रमण कर वेंगी पर विजय प्राप्त की। इसके बाद पूर्वी चालुक्य सिंहासन पर उन्होंने शक्तिवर्मन् को प्रतिष्ठित किया और अपनी बेटी कुंडवा का विवाह शक्तविर्मन् के लघु भ्राता विमलादित्य से किया। इस समय कलिंग के राजा भी वेंगी पर नजर गड़ाए थे, राजराज ने उन्हें भी हरा दिया।
राजराज के चित्र उनके पुत्र रेजिडेंट प्रथम (1012-1044) सिंहासनरूढ़ हुए। रेजिडेंट प्रथम भी अत्यंत शक्तिशाली सम्राट थे। चेर, पांड्य और सिंहल ने जीत हासिल की और उन्हें अपने राज्य में मिला लिया। उन्होंने पश्चिमी चालुक्यों को कई देशों में पराजित किया, उनकी राजधानी का उद्घाटन किया और पूर्ण विजय प्राप्त नहीं की। रेजिडेंट के दो अन्य सैनिक अभियान अत्यंत उल्लेखनीय हैं। उनके प्रथम सैनिक अभियान ने पूर्वी समुद्रतट से कलिंग, उड़ीसा, दक्षिण कोशल आदि राज्यों के राजाओं को बंगाल के विरुद्ध पराजित किया। उन्होंने पश्चिम एवं दक्षिण बंगाल के तीन छोटे राजकुमारों के साथ मिलकर शक्तिशाली पाल राजा महिपाल को भी परास्त किया। इस अभियान का कारण अभिलेखों के अनुसार गंगाजल प्राप्त करना था। यह भी ज्ञात हुआ है कि पराजित राजाओं को यह जल अपने सरदारों पर थोपना पड़ा था। हालाँकि यह एक ज़माना आक्रमण था, इससे चोल साम्राज्य की सीमा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
रेजिडेंट का दूसरा महत्वपूर्ण आक्रमण मलयद्वीप, जावा और सुमात्रा के शैलेट शासन के विरुद्ध हुआ। यह पूर्ण रूप से नौसैनिक आक्रमण था। समुद्री सम्राटों के राजराज से मैत्रीपूर्ण व्यवहार था, जो कि दूबेराजन्त्रों के साथ उनकी शत्रुता का कारण ज्ञात था। रेजिडेंट को इसमें सफलता मिली। राजराज की भाँति राजपुत ने भी एक राजदूत को भेजा।
राजाधिराज प्रथम (1018-1054) का उत्तराधिकारी था। उनका अधिकांश समय विद्रोहों के शमन में लगा। शुरुआत में उन्होंने कई छोटे छोटे राज्यों और चेर, पांड्य और सिंहल के विद्रोहों का दमन किया। अनन्तर इसके चालुक्य सोमेश्वर से कोप्पम के युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई। युद्धक्षेत्र में ही राजद द्वितीय (1052-1064) अभिषिक्त हुए। चालुक्यों ने इस युद्ध में डटकर मुकाबला किया और अपनी विजय प्राप्त की। चालुक्यों के साथ युद्ध का अस्त्र-शस्त्र था। रेजिडेंट द्वितीय के उत्तराधिकारी और वीर रेजिडेंट (1063-1069) ने कई युद्धों में विजय प्राप्त की: पूर्ववत पर संपूर्ण चोल साम्राज्य का शासन था। अधिराजेन्द्र (1067-1070) वीर रियासत के उत्तराधिकारी थे, कुछ महीनों के शासन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम ने चोल राज्य श्री छीन ली।
कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120) पूर्वी चालुक्य सम्राट राजराज का पुत्र था। कुलोत्तुंग की मां एवं मातामही पिज्जा: राजदो (प्रथम) चोल और राजराज प्रथम की पुत्रियां थीं। कुलोत्तनुग प्रथम स्वयं राजद द्वितीय की बेटी से स्थापित किया गया था। कुलोत्तुंग ने अपने नामांकन एवं अधिराजेंद्र के पक्ष से सभी विद्रोहों का दमन करके अपनी स्थिति की पुष्टि कर ली। अपने विस्तृत शासनकाल में उन्होंने अधिराजेन्द्र के हिमायती एवं बहनोई चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य के अनेक आक्रमणों एवं विद्रोहों का सामना किया। सिंहल फिर भी स्वतंत्र हो गए। युनाइटिड विक्रम चोल के प्रयास एस कलिंग के दक्षिणी प्रदेश कुलोत्तुंग के राज्य में मिला लिया गया। कुलोत्तुंग ने अपने अंतिम दिनों तक सिंहल के अतिरिक्त प्रयास: संपूर्ण चोल साम्राज्य और दक्षिणी कलिंग प्रदेश पर शासन किया। वह एक राजदूत भी चीन भेजा।
विक्रम चोल (1118-1133) कुलोत्तुंग का उत्तराधिकारी हुआ। लगभग 1118 में विक्रमादित्य छठे ने वेंगी चोलों से छीन ली। होयसलों ने भी चोलों को कावेरी के पार भगा दिया और मैसूर प्रदेश का अधिकार ले लिया।
कुलोत्तुंग प्रथम के बाद का लगभग सौ वर्ष का चोल इतिहास अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। इस अवधि में विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराज द्वितीय (1146-1173), राजाराज द्वितीय (1163-1179), कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218) ने शासन किया। इन मुद्रणालयों के समय चोलों का उत्तरोत्तर अवसान हो रहा था। राजराज तृतीय (1216-1246) को पांड्यों ने बुरी तरह पराजित किया और उसकी राजधानी छीन ली। चोल सम्राटों ने अपने आक्रामकों एवं विद्रोहियों के विरुद्ध शक्तिशाली होयसलों की सहायता ली थी और इसी कारण धीरे-धीरे-धीरे-धीरे वे उनके साथ की कठपुतली बन गए। राजराज को एकबार पांड्यों से हार का सामना करना पड़ा, भागते समय कोप्पेरुंजिग ने आक्रमण कर बंदी बना लिया, पर छोड़ दिया।
चोल वंश का अंतिम राजा राजतंत्र तृतीय (1246-1279) हुआ। शुरुआत में राजेञ्चय को पांड्यों के विरुद्ध आंशिक सफलता मिली, लेकिन ऐसा खास होता है कि गंडगोपाल तिक्क राजराज तृतीय के नाममात्र के साम्राज्य पर शासन चल रहा था। गणपति काकतीय के काँची आक्रमण के स्मारक तिक्क ने उसी की प्रतिज्ञा स्वीकार की। अंतत: जटावर्मन सुंदर पांड्य ने उत्तर पर आक्रमण किया और चोलों को पराजित किया। इसके बाद चोल शासक पांड्यों के अधीनस्थ रहे और उनकी यह स्थिति भी 1310 में अमीर काफूर के आक्रमण से समाप्त हो गई। (चोल सम्राट साम्यवादी अपने राज्य का अधिष्ठापन अपने यौवराज्य से मानते थे और इसलिए उनके काल के कुछ प्रारंभिक वर्ष और उनके दिवंगत पूर्ववर्ती सम्राटों के कुछ अंतिम वर्षों में वैधानिक प्राप्ति होती है)।
चोल वंश के राजा - वंशावली
विजयालय चोल 848-871
आदित्य १ 871-907 -
परन्तक चोल १ 907-950
गंधरादित्य 950-957
अरिंजय चोल 956-957
सुन्दर चोल 957-970
उत्तम चोल 970-985
राजेन्द्र चोल १ 1012-1044
राजाधिराज चोल १ 1044-1054
राजेन्द्र चोल २ 1054-1063
वीरराजेन्द्र चोल 1063-1070
अधिराजेन्द्र चोल 1067-1070
चालुक्य चोल
कुलोतुंग चोल १ 1070-1120
कुलोतुंग चोल २ 1133-1150
राजाराज चोल २ 1146-1163
राजाधिराज चोल २ 1163-1178
कुलोतुंग चोल ३ 1178-1218
राजाराज चोल ३ 1216-1256
राजेन्द्र चोल ३ 1246-1279
शासन व्यवस्था
चोलो के अभिलेखों आदि से ज्ञात होता है कि उनका शासन सुसंगठित था। राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी राजा मंत्रियों एवं राज्याधिकारियों की सलाह से शासन करता था। शासनसुविधा की दृष्टि से सारा राज्य अनेक मंडलों में विभक्त था। मंडल कोट्टम् या बलनाडुओं में बँटे होते थे। इनके बाद की शासकीय परंपरा में नाडु (जिला), कुर्रम् (ग्रामसमूह) एवं ग्रामम् थे। चोल राज्यकाल में इनका शासन जनसभाओं द्वारा होता था। चोल ग्रामसभाएँ "उर" या "सभा" कही जाती थीं। इनके सदस्य सभी ग्रामनिवासी होते थे। सभा की कार्यकारिणी परिषद् (आडुगणम्) का चुनाव ये लोग अपने में से करते थे। उत्तरमेरूर से प्राप्त अभिलेख से उस ग्रामसभा के कार्यों आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। उत्तरमेरूर ग्रामशासन सभा की पाँच उपसमितियों द्वारा होता था। इनके सदस्य अवैतनिक थे एवं उनका कार्यकाल केवल वर्ष भर का होता था। ये अपने शासन के लिए स्वतंत्र थीं एवं सम्राटादि भी उनकी कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे।
चोल शासक प्रसिद्ध भवननिर्माता थे। सिंचाई की व्यवस्था, राजमार्गों के निर्माण आदि के अतिरिक्त उन्होंने नगरों एवं विशाल मंदिर तंजौर में बनवाया। यह प्राचीन भारतीय मंदिरों में सबसे अधिक ऊँचा एवं बड़ा है। तंजौर के मंदिर की दीवारों पर अंकित चित्र उल्लेखनीय एवं बड़े महत्वपूर्ण हैं। राजेंद्र प्रथम ने अपने द्वारा निर्मित नगर गंगैकोंडपुरम् (त्रिचनापल्ली) में इस प्रकार के एक अन्य विशाल मंदिर का निर्माण कराया। चोलों के राज्यकाल में मूर्तिकला का भी प्रभूत विकास हुआ। इस काल की पाषाण एवं धातुमूर्तियाँ अत्यंत सजीव एवं कलात्मक हैं।
चोल शासन के अंतर्गत साहित्य की भी बड़ी उन्नति हुई। इनके शाक्तिशाली विजेताओं की विजयों आदि को लक्ष्य कर अनेकानेक प्रशस्ति पूर्ण ग्रंथ लिखे गए। इस प्रकार के ग्रंथों में जयंगोंडार का "कलिगंत्तुपर्णि" अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त तिरुत्तक्कदेव लिखित "जीवक चिंतामणि" तमिल महाकाव्यों में अन्यतम माना जाता है। इस काल के सबसे बड़े कवि कंबन थे। इन्होंने तमिल "रामायण" की रचना कुलोत्तुंग तृतीय के शासनकाल में की। इसके अतिरिक्त व्याकरण, कोष, काव्यशास्त्र तथा छंद आदि विषयों पर बहुत से महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना भी इस समय हुई।
सांस्कृतिक स्थिति
चोल साम्राज्य की शक्ति बढ़ने के साथ ही सम्राट् के गौरव ओर ऐश्वर्य के भव्य प्रदर्शन के कार्य बढ़ गए थे। राजभवन, उसमें सेवकों का प्रबंध ओर दरबार में उत्सवों और अनुष्ठानों में यह प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। सम्राट् अपने जीवनकाल ही में युवराज को शासनप्रबन्ध में अपने साथ संबंधित कर लेता था। सम्राट के पास उसकी मौखिक आज्ञा के लिए भी विषय एक सुनिश्चित प्रणाली के द्वारा आता था, एक सुनिश्चित विधि में ही वह कार्य रूप में परिणत होता था। राजा को परामर्श देने के लिए विभिन्न प्रमुख विभागों के कर्मचारियों का एक दल, जिसे 'उडनकूट्टम्' कहते थे। सम्राट् के निरंतर संपर्क में रहता था। सम्राट् के निकट संपर्क में अधिकारियों का एक संगठित विभाग था जिसे ओलै कहते थे1 चोल साम्राज्य में नौकरशाही सुसंगठित और विकसित थी जिसमें अधिकारियों के उच्च (पेरुंदनम्) और निम्न (शिरुदनम्) दो वर्ग थे। केंद्रीय विभाग की ओर से स्थानीय अधिकारियों का निरीक्षण और नियंत्रण करने के लिए कणकाणि नाम के अधिकारी होते थेे। शासन के लिए राज्य वलनाडु अथवा मंडलम्, नाडु और कूर्रम् में विभाजित था। संपूर्ण भूमि नापी हुई थी और करदायी तथा करमुक्त भूमि में बँटी थी। करदायी भूमि के भी स्वाभाविक उत्पादनशक्ति और फसल के अनुसार, कई स्तर थे। कर के लिए संपूर्ण ग्राम उत्तरदायी था। कभी-कभी कर एकत्रित करने में कठोरता की जाती थी। भूमिकर के अतिरिक्त चुंगी, व्यवसायों और मकानों तथा विशेष अवसरों और उत्सवों पर भी कर थे। सेना अनेक सैन्य दलों में बँटी थी जिनमें से कई के विशिष्ट नामों का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। सेना राज्य के विभिन्न भागों में शिविर (कडगम) के रूप में फैली थी। दक्षिण-पूर्वी एशिया में चोलों की विजय उनके जहाजी बेड़े के संगठन और शक्ति का स्पष्ट प्रमाण है। न्याय के लिए गाँव और जाति की सभाओं के अतिरिक्त राज्य द्वारा स्थापित न्यायालय भी थे। निर्णय सामाजिक व्यवस्थाओं, लेखपत्र और साक्षी के प्रमाण के आधार पर होते थे। मानवीय साक्ष्यों के अभाव में दिव्यों का भी सहारा लिया जाता था।
चोल शासन की प्रमुख विशेषता सुसंगठित नौकरशाही के साथ उच्च कोटि की कुशलतावली स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का सुंदर और सफल सामंजस्य है। स्थानीय जीवन के विभिन्न अंगों के लिए विविध सामूहिक संस्थाएँ थीं जो परस्पर सहयोग से कार्य करती थीं। नगरम् उन स्थानों की सभाएँ थीं जहाँ व्यापारी वर्ग प्रमुख था। ऊर गँव के उन सभी व्यक्तियों की सभा थी जिनके पास भूमि थी। 'सभा ब्रह्मदेय' गाँवों के ब्राह्मणों की सामूहिक संस्था का विशिष्ट नाम था। राज्य की ओर से साधारण नियंत्रण और समय पर आयव्यय के निरीक्षण के अतिरिक्त इन सभाओं को पूर्ण स्वतंत्रता थी। इनके कार्यों के संचालन के लिए अत्यंत कुशल और संविधान के नियमों की दृष्टि से संगठित और विकसित समितियों की व्यवस्था थी जिन्हें वारियम् कहते थे। उत्तरमेरूर की सभा ने परांतक प्रथम के शासनकाल में अल्प समय के अंतर पर ही दो बार अपने संविधान में परिवर्तन किए जो इस बात का प्रमाण है कि ये सभाएँ अनुभव के अनुसार अधिक कुशल व्यवस्था को अपनाने के लिये तत्पर रहती थीं। इन सभाओं के कर्तव्यों का क्षेत्र व्यापक और विस्तृत था।
चोल नरेशों ने सिंचाई की सुविधा के लिए कुएँ और तालाब खुदवाए और नदियों के प्रवाह को रोककर पत्थर के बाँध से घिरे जलाशय (डैम) बनवाए। करिकाल चोल ने कावेरी नदी पर बाँध बनवाया था। राजेंद्र प्रथम ने गंगैकोंड-चोलपुरम् के समीप एक झील खुदवाई जिसका बाँध 16 मील लंबा था। इसको दो नदियों के जल से भरने की व्यवस्था की गई और सिंचाई के लिए इसका उपयोग करने के लिए पत्थर की प्रणालियाँ और नहरें बनाई गईं। आवागमन की सुविधा के लिए प्रशस्त राजपथ और नदियों पर घाट भी निर्मित हुए।
सामाजिक जीवन में यद्यपि ब्राह्मणों को अधिक अधिकार प्राप्त थे और अन्य वर्गों से अपना पार्थक्य दिखलाने के लिए उन्होंने अपनी अलग बस्तियाँ बसानी शुरू कर दी थीं, फिर भी विभिन्न वर्गों के परस्पर संबंध कटु नहीं थे। सामाजिक व्यवस्था को धर्मशास्त्रों के आदेशों और आदर्शों के अनुकूल रखने का प्रयन्त होता था। कुलोत्तुंग प्रथम के शासनकाल में एक गाँव के भट्टों ने शास्त्रों का अध्ययन कर रथकार नाम की अनुलोम जाति के लिए सम्मत जीविकाओं का निर्देश किया। उद्योग और व्यवसाय में लगे सामाजिक वर्ग दो भागों में विभक्त थे- वलंगै और इडंगै। स्त्रियाँ पर सामाजिक जीवन में किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं था। वे संपत्ति की स्वामिनी होती थीं। उच्च वर्ग के पुरुष बहुविवाह करते थे। सती का प्रचार था। मंदिरों में गुणशीला देवदासियाँ रहा करती थीं। समाज में दासप्रथा प्रचलित थी। दासों की कई कोटियाँ होती थीं।
आर्थिक जीवन का आधार कृषि थी। भूमिका स्वामित्व समाज में सम्मान की बात थी। कृषि के साथ ही पशुपालन का व्यवसाय भी समुन्नत था। स्वर्णकार, धातुकार और जुलाहों की कला उन्नत दशा में थी। व्यापारियों की अनेक श्रेणियाँ थीं जिनका संगठन विस्तृत क्षेत्र में कार्य करता था। नानादेश-तिशैयायिरत्तु ऐज्जूरुंवर व्यापारियों की एक विशाल श्रेणी थी जो वर्मा और सुमात्रा तक व्यापार करती थी।
चोल सम्राट शिव के उपासक थे लेकिन उनकी नीति धार्मिक सहिष्णुता की थी। उन्होंने बौद्धों को भी दान दिया। जैन भी शांतिपूर्वक अपने धर्म का पालन और प्रचार करते थे। पूर्वयुग के तमिल धार्मिक पद वेदों जैसे पूजित होने लगे और उनके रचयिता देवता स्वरूप माने जाने लगे। नंबि आंडार नंबि ने सर्वप्रथम राजराज प्रथम के राज्यकाल में शैव धर्मग्रंथों को संकलित किया। वैष्णव धर्म के लिए यही कार्य नाथमुनि ने किया। उन्होंने भक्ति के मार्ग का दार्शनिक समर्थन प्रस्तुत किया। उनके पौत्र आलवंदार अथवा यमुनाचार्य का वैष्णव आचार्यों में महत्वपूर्ण स्थान है। रामानुज ने विशिष्टाद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया मंदिरों की पूजा विधि में सुधार किया और कुछ मंदिरों में वर्ष में एक दिन अंत्यजों के प्रवेश की भी व्यवस्था की। शैवों में भक्तिमार्ग के अतिरिक्त बीभत्स आचारोंवाले कुछ संप्रदाय, पाशुपत, कापालिक और कालामुख जैसे थे, जिनमें से कुछ स्त्रीत्व की आराधना करते थे, जो प्राय: विकृत रूप ले लेती थी। देवी के उपासकों में अपना सिर काटकर चढ़ाने की भी प्रथा थी। इस युग के धार्मिक जीवन में मंदिरों का विशेष महत्व था। छोटे या बड़े मंदिर, चोल राज्य के प्राय: सभी नगरों और गाँवों में इस युग में बने। ये मंदिर, शिक्षा के केंद्र भी थे। त्योहारों और उत्सवों पर इनमें गान, नृत्य, नाट्य और मनोरंजन के आयोजन भी होते थे। मंदिरों के स्वामित्व में भूमि भी होती थी और कई कर्मचारी इनकी अधीनता में होते थे। ये बैंक का कार्य थे। कई उद्योगों और शिल्पों के व्यक्तियों को मंदिरों के कारण जीविका मिलती थी।
चोलों के मंदिरों की विशेषता उनके विमानों और प्रांगणों में दिखलाई पड़ती है। इनके शिखरस्तंभ छोटे होते हैं, किंतु गोपुरम् पर अत्यधिक अलंकरण होता है। प्रारंभिक चोल मंदिर साधारण योजना की कृतियाँ हैं लेकिन साम्राज्य की शक्ति और साधनों की वृद्धि के साथ मंदिरों के आकार और प्रभाव में भी परिवर्तन हुआ। इन मंदिरों में सबसे अधिक प्रसिद्ध और प्रभावोत्पादक राजराज प्रथम द्वारा तंजोर में निर्मित राजराजेश्वर मंदिर, राजेंद्र प्रथम द्वारा गंगैकोंडचोलपुरम् में निर्मित गंगैकोंडचोलेश्वर मंदिर है। चोल युग अपनी कांस्य प्रतिमाओं की सुंदरता के लिए भी प्रसिद्ध है। इनमें नटराज की मूर्तियाँ सर्वात्कृष्ट हैं। इसके अतिरिक्त शिव के दूसरे कई रूप, ब्रह्मा, सप्तमातृका, लक्ष्मी तथा भूदेवी के साथ विष्णु, अपने अनुचरों के साथ राम और सीता, शैव संत और कालियदमन करते हुए कृष्ण की मूर्तियाँ भी उल्लेखनीय हैं।
तमिल साहित्य के इतिहास में चोल शासनकाल को 'स्वर्ण युग' की संज्ञा दी जाती है। प्रबंध साहित्यरचना का प्रमुख रूप था। दर्शन में शैव सिद्धांत के शास्त्रीय विवेचन का आरंभ हुआ। शेक्किलार का तिरुत्तोंडर् पुराणम् या पेरियपुराणम् युगांतरकारी रचना है। वैष्णव भक्ति-साहित्य और टीकाओं की भी रचना हुई। आश्चर्य है कि वैष्णव आचार्य नाथमुनि, यामुनाचार्य और रामानुज ने प्राय: संस्कृत में ही रचनाएँ की हैं। टीकाकारों ने भी संस्कृत शब्दों में आक्रांत मणिप्रवाल शैली अपनाई। रामानुज की प्रशंसा में सौ पदों की रचना रामानुजनूर्रदादि इस दृष्टि से प्रमुख अपवाद है। जैन और बौद्ध साहित्य की प्रगति भी उल्लेखनीय थी। जैन कवि तिरुत्तक्कदेवर् ने प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य जीवकचिंतामणि की रचना 10वीं शताब्दी में की थी। तोलामोलि रचित सूलामणि की गणना तमिल के पाँच लघु काव्यों में होती है। कल्लाडनार के कल्लाडम् में प्रेम की विभिन्न मनोदशाओं पर सौ पद हैं। राजकवि जयन्गोंडा ने कलिंगत्तुप्परणि में कुलोत्तुंग प्रथम के कलिंगयुद्ध का वर्णन किया है। ओट्टकूत्तन भी राजकवि था जिसकी अनेक कृतियों में कुलोत्तुंग द्वितीय के बाल्यकाल पर एक पिल्लैत्तामिल और तीन चोल राजाओं पर उला उल्लेखनीय हैं। प्रसिद्ध तमिल रामायणम् अथवा रामावतारम् की रचना कंबन् ने कुलोत्तुंग तृतीय के राज्यकाल में की थी। किसी अज्ञात कवि की सुंदर कृति कुलोत्तुंगन्कोवै में कुलोत्तुंग द्वितीय के प्रारंभिक कृत्यों का वर्णन है। जैन विद्वान् अमितसागर ने छंदशास्त्र पर याप्परुंगलम् नाम के एक ग्रंथ और उसके एक संक्षिप्त रूप (कारिगै) की रचना की। बौद्ध बुद्धमित्र ने तमिल व्याकरण पर वीरशोलियम् नाम का ग्रंथ लिखा। दंडियलंगारम् का लेखक अज्ञात है; यह ग्रंथ दंडिन के काव्यादर्श के आदर्श पर रचा गया है। इस काल के कुछ अन्य व्याकरण ग्रंथ हैं- गुणवीर पंडित का नेमिनादम् और वच्चणंदिमालै, पवणंदि का नन्नूल तथा ऐयनारिदनार का पुरप्पोरलवेण्बामालै। पिंगलम् नाम का कोश भी इसी काल की कृति है।
चोलवंश के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चोल नरेशों ने संस्कृत साहित्य और भाषा के अध्ययन के लिए विद्यालय (ब्रह्मपुरी, घटिका) स्थापित किए और उनकी व्यवस्था के लिए समुचित दान दिए। किंतु संस्कृत साहित्य में, सृजन की दृष्टि से, चोलों का शासनकाल अत्यल्प महत्व का है। उनके कुछ अभिलेख, जो संस्कृत में हैं, शैली में तमिल अभिलेखों से नीचे हैं। फिर भी वेंकट माधव का ऋग्वेद पर प्रसिद्ध भाष्य परांतक प्रथम के राज्यकाल की रचना है। केशवस्वामिन् ने नानार्थार्णवसंक्षेप नामक कोश को राजराज द्वितीय की आज्ञा पर ही बनाया था।
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